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प्रहरी ओ देश के

उद्भ्रान्त

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5862
आईएसबीएन :81-288-1726-4

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प्रस्तुत हैं राष्ट्रीय कविताएँ...

Prahari O Desh Ke is a Hindi Patriotic Poetry Book by Udbhrant

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘प्रहरी ओ देश के’ हन्दी के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि उदभ्रांत द्वारा वर्ष 1960 के दशक में रचित छंद-मुक्तछंद की राष्ट्रीय, श्रम के महत्त्व को प्रतिपादित करने वाली, प्रगतिशील कविताओं का वह संकलन है जो युगधर्म को अपनी सीधी, सरल वाणी में सम्प्रेषित करने के विरल गुण के कारण महाकवि सुमित्रानंदन पंत कविवर पं. भवानी प्रसाद मिश्र और राष्ट्र कवि पं. सोहनलाल द्विवेदी जैसे मूर्धन्य कवियों द्वारा तो प्रशंसित हुआ ही, सामान्य जनता ने भी उसमें अपने हृदय को अभिव्यक्त होते पाया। फलस्वरूप, विगत तीन दशकों में इन कविताओं के अनेक संस्करण हुए और देश की रक्षार्थ सीमा पर तैनात प्रहरियों ने भी इन्हें अपनी वाणी दी। संग्रह की अनेक कविताएँ सातवें दशक में कवि-सम्मेलनों के अतिरिक्त आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों और विविध भारती से भी सुनी जाकर जनता द्वारा अपनाई गई।

1857 के स्वाधीनता संग्राम की 150वीं जयंती के अवसर पर डायमंड पाकेट बुक्स की ओर से कवि उद्भ्रांत की राष्ट्रीय रचनाओं का यह लोकप्रिय काव्य सगर्व प्रस्तुत है।

‘‘आग बोलती है’’ नामक संग्रह में उद्भ्रांत ने अपने युग की पुकार सुनी है। यह देशव्यापी वातावरण में श्वासोच्छवास लेकर अपने हृदय की आग उगलने लगा है। इसमें कहीं दिनकर की, कहीं ‘‘एक भारतीय का घोषणापत्र’’ जैसी रचनाओं में स्वामी रामतीर्थ की याद आने लगती है। इस संग्रह में निःसंदेह उनकी अत्यंत सशक्त तथा प्राणवान रचनाएँ हैं। उनके भीतर से युग का संघर्ष, ऊहापोह तथा ज्वलंत आवेग ही बोल रहा है। वे वंशी छोड़कर हाथ में कटार लेना चाहते हैं। रूपक, उपमा, भाव-बोध, उद्गार-सभी दृष्टियों से संग्रह में नवीनता तथा आंधियों का वेग है।


श्री सुमित्रानंदन पंत


‘‘आग बोलती है’’ ने इस संभावना की ओर इशारा किया था कि यह तरुण केवल जवानी के जोश में कुछ दिनों तक लिखकर चुक जाने वाला कवि सिद्ध नहीं होगा। उस संग्रह के गीतों की कितनी ही पंक्तियां अब भी मेरे मन में है, जैसे -‘यह सदी चोट खाई-सी लगती है, हिंसा अंगड़ाई लेकर जगती है। जो आदिम युग इतिहास बन चुका था, उसके पत्रों को हवा खोलती है।’ इस संग्रह के अधिकतर गीत शायद भारत-पाकिस्तान युद्ध की बुरी घड़ी में लिखे गए थे। एक आवश्यकता ने, जो तात्कालिक थी। पूरी ताकत से कवि को मथा और उसने अनेक ओजपूर्ण गीत लिखे- ‘थरथराते पंख उनके ही कि जो सामान्य हैं, किंतु तुम तो हो असाधारण पखेरू ! तुम झुके क्यों ? राह में पंथी रुके क्यों ?’’


पं भवानी प्रसाद मिश्र


‘‘राष्ट्रीय चेतना के जिस क्षितिज को ये रचनाएं स्पर्श कर रही हैं, वहाँ वे सभी रसज्ञों की सहज सराहना प्राप्त करेंगी। तुम्हारी रचनाओं में तुम नहीं बोल रहे, तुम्हारे युग का स्वर मुखरित हुआ है, जो जन-जन के हृदयों को अनुप्राणित करता है। यह जागरण-जीवन का काव्य बहुचर्चित होगा, उससे भी अधिक लोकप्रिय-इसमें संदेह नहीं।’’

राष्ट्रकवि पं. सोहनलाल द्विवेदी


स्मरण करते हुए



मैथिलीशरण गुप्त, त्रिशूल, नवीन,
एक भारतीय आत्मा, दिनकर, प्रभात,
सोहनलाल द्विवेदी, सुभद्राकुमारी चौहान,
श्याम नारायण पाण्डेय और माधव शुक्ल को-
जिनकी राष्ट्रीय रचनाओं ने
आजादी की प्राप्ति में एक अहम भूमिका निभाई;

और

सीमाओं पर तैनात
राष्ट्र के उन सजग प्रहरियों को
जिनके सैकड़ों
जुझारू भाईयों ने
इस आजादी को बचाए रखने के लिए
अनेक युद्धों में हँसते-हँसते
अपने प्राण होम दिए !


दो बातें आपसे



‘प्रहरी ओ देश के’ के नामक अपनी लगभग सम्पूर्ण राष्ट्रीय कविताओं का यह संग्रह आपके समक्ष प्रस्तुत करते हुए मुझे अतीव प्रसन्नता हो रही है। इन कविताओं के इस रूप में आकार लेने की एक पृष्ठभूमि है। मैं उसे आपके समक्ष रखने की इजाज़त चाहूँगा।

सदियों से जकड़ी गुलामी की जंजीरें तोड़कर यह देश 15 अगस्त, 1947 को आजाद हुआ था। आजादी के इस अमूल्य भवन को निर्मित करने में राष्ट्र के उन सजग प्रहरियों का बड़ा योगदान था- जो अंग्रेजी हुकूमत पर लगातार प्रहार करते हुए उसे कमजोर और जर्जर करने वाली-1857 के स्वातंत्र्य-संग्राम के लक्ष्मीबाई, नाना साहब, तांत्या टोपे, कुंवर, जफर, अजीमल तथा बाद में कांग्रेस और क्रान्तिकारी दलों कते दादा भाई नौरोजी, महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, सरदार वल्लभभाई पटेल, मोतीलाल नेहरू, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना आजाद, डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, अरुणा आसफ अली, दार्शनिक क्षेत्र के रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, योगीराज अरविन्द, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और विनोबा भावे तथा साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त, गया प्रसाद शुक्ल सनेही ‘त्रिशूल’ माखनलाल चतुर्वेदी ‘एक भारतीय आत्मा’ बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ माधव शुक्ल पांडेय, बेचन शर्मा उग्र, दिनकर, श्यामनारायण पांडेय, सुभद्राकुमारी चौहान, सरोजनी नायडू जैसे अपने-अपने क्षेत्र के महान स्वातंत्र्य-सेनापतियों की-एक कभी न खत्म होने वाली कड़ी का निर्माण करते थे।

गोकि, राजनैतिक सौदेबाजी के चलते हमें सम्पूर्ण नहीं, खंडित आजादी मिली; जिसकी प्रतिच्छाया आजाद भारत के ऊपर इन पंक्तियों के लिखे जाने के क्षण तक लगातार मंडराती है और एशियाई परिवेश में जब तक कोई चमत्कारिक बदलाव दृष्टिगोचर नहीं होता, तब तक, नहीं लगता कि उस भयानक छाया से हमें निजात मिल सकेगी-जो कभी चीन के आक्रमण के रूप में (अखंड भारत पर आक्रमण) करने का चीन स्वप्न भी नहीं देख सकता था), कभी पाकिस्तान के आक्रमण के रूप में, कभी कश्मीर, तो कभी बांग्लादेश की समस्या बनकर हमारे दुखते हुए घावों पर नमक की तरह बरसती रही है।

गोकि ऐसी स्थितियाँ जब-जब उत्पन्न हुईं, तब-तब इस टूटे और आधे–अधूरे भारत ने भी दिखा दिया कि जिस रूप में वह आजाद होकर विश्व के समक्ष उपस्थित है, उसकी मिट्टी में जन्मे सैनिकों में बहता फौलादी लहू ऐसी स्थितियों को मुंहतोड़ उत्तर देते हुए उन्हें सामान्य बनाने की क्षमता रखता है।

और इन विषम परिस्थितियों ने भारत की रचनाशीलता के लिए भी राष्ट्र के सजग प्रहरियों के मनोबल से संवर्द्धन-हेतु, उत्प्रेरक का कार्य किया। हिन्दी सहित भारत की सभी भाषाओं के कवियों ने अपनी लेखनी से ओजस्वी राष्ट्रीय लहर को गुंजारित करते हुए जनता के साथ-साथ सेना के वीर जवानों के हौसले को बढ़ाने का अभूतपूर्व कार्य किया।

वर्ष 1955 और ’58 में चाऊ एन एक लाई की भारत यात्रा और नेहरू की चीन यात्रा के दौरान ‘हिन्दी चीनी भाई भाई’ के दोस्ताना नारे उद्घोष करने वाले चीन ने वर्ष 1962 में भारत पर अचानक हमला करते हुए स्वप्नदर्शी पं. जवाहरलाल नेहरू को स्तब्ध-अवाक कर दिया था और इसके तीन ही वर्ष पश्चात उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी श्री लाल बहादुर शास्त्री को हमारे अर्द्धांग दूसरे निकटतम, शाश्वत पड़ोसी के हमले का शिकार होना पड़ा था। विडम्बना थी कि दोनों ही युद्धों के पश्चातवर्ती घटनाक्रमों ने दोनों संवेदनशील प्रधानमंत्रियों का अक्षय संवेदना पर पूर्ण विराम लग दिया था। पंडित नेहरू ने उस पूर्ण विराम के लिए कुछ अधिक समय लिया। शास्त्री जी तो युद्ध-विराम के साथ ही विराम पा गए।

हमारे इस दूसरे पड़ोसी ने बांग्लादेश के युद्ध में भी हमें बदनाम करने और उलझाने की बहुत कोशिश की, किन्तु स्वप्नदर्शी पं. नेहरू सो जो चूक हुई थी, उनकी बेटी तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने उसमें सुधार करते हुए अपने प्रगामी नेतृत्व से, उलटकर तेज हमला करते हुए हमारे पड़ोसी को ही सबक सिखा दिया।

इन तीन विदेशी हमलों में भारत की रक्षक-वाहिनियों ने सभी स्तरों पर जो प्रचंड प्रत्याक्रमण किया- वह तो एक नाजार था ही किन्तु उतनी ही महत्त्वपूर्ण था समग्र भारत की रचनाशीलता का आन्दोलन होना; जिसमें शामिल थे-छायावादी युग के श्री सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, राजकुमार वर्मा, केदारनाथ मिश्र प्रभात द्विवेदी युग के राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, छायावादोत्तर काल के बच्चन, दिनकर, अंचल पं, नरेन्द्र शर्मा, राष्ट्रीय दौर के माखनलाल चतुर्वेदी; प्रयोगवादी दौर के अज्ञेय, शमशेर, रघुवीर सहाय, विजयदेव नारायण साही तथा समकालीन दौर के भी अनेकानेक कवि-लेखक और साहित्यकार।
इन युद्धों का- और इन युद्धों की अवधि में आंदोलित भारतीय रचनाशीलता का–मुझ पर भी गहरा प्रभाव पड़ा।

आज विश्लेषित करता हूँ तो पाता हूँ कि वर्ष 1959 में प्रारम्भ मेरी सृजन-यात्रा के पहले दशक में दूसरे रंगों के अतिरिक्त राष्ट्रीय चेतना भी मेरी कविता का जो एक अन्तर्भूत तत्त्व रही, उसके दो प्रमुख कारणों में एक कारण यही था, जिसकी चर्चा मैंने ऊपर की है। यानी मेरी सर्जना के पहले ही दशक में तीन-तीन युद्धों का मेरी काव्य-चेतना के भीतर से गुजरना।

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